क्या सच में सब का मालिक एक है?
अगर ऐसा है तो फिर समाज में इतना बैरभाव क्यों? क्या हम सच में मानते हैं कि सबका मालिक एक है या बस कहने के लिये कह देते हैं? दुनिया में बहुत से धर्म हैं। उन सबके रीतिरिवाज अलग अलग हैं और वे सभी इस बात को तूल देते हैं कि उनका ही रास्ता ठीक है। तो क्या बाकी रास्ते गलत हैं? क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं? “हमारे यहाँ तो ऐसा होता है” या “हम तो यह मानते हैं”, यह बात हर जगह धार्मिक विषय पर हो रही बातचीत में सुनाई देती रहती है। क्या ईश्वर भी ऐसे ही बँटा हुआ है?
बहुत से समाजसेवक, गुरु और संत/पैगम्बर इस बात को बताने की कोशिश करते रहे हैं कि समाज में भेदभाव नहीं होना चाहिये, हमें सब धर्मों के लोगों को एक ही दृष्टि से देखना चाहिये, फिर भी भेदभाव भी है और ऊँच-नीच भी। ईश्वर इंसान में भेद नहीं करता और सिखाता है कि सब आपस में प्रेम करें और ईश्वर से भी प्रेम करें, तौभी ऐसा होता नहीं है क्योंकि मनुष्य ईश्वर की नहीं सुनता बल्कि अपने ही तौरतरीकों में खोया रहता है। हरेक धर्म के अपने अपने शास्त्र हैं और अपने अपने तौर-तरीके। सभी ईश्वर को पाना चाहते हैं परंतु फिर भी उसमें अंतर मानते हैं। क्या सच में हिंदू को रचने वाला और ईसाई को रचने वाला ईश्वर अलग अलग है। अगर नहीं, तो फिर हम ईश्वर को बाँटकर क्यों देखते हैं? कुछ धर्मावलंबी अधिक उदार है इसलिये वे कह देते हैं कि ईश्वर एक है परंतु उसके रूप अलग अलग हैं। पर यदि ऐसा है तो अलग अलग धर्मों में उसकी शिक्षायें और उसका स्वरूप हमें एकदम भिन्न क्यों नज़र आता है? विचार करें। Continue Reading