Prayshchit ya pashchatap
प्रायश्चित या पश्चाताप

“तुम जो यह करने जा रहे हो यह ठीक नहीं, यह गलत है, यह झूठ है, यह पाखंड है”।

मनुष्य का विवेक अनेक परिस्थितियों में यह बात उसके अंतर्मन में कहता है। बचपन से हमने सीखा है कि झूठ बोलना पाप है, चोरी करना पाप है, धोखा देना पाप है – परंतु हम में से ऐसा कौन है जिसने कभी झूठ ना बोला हो, कभी भी चोरी ना की हो (चोरी सिर्फ धन की ही नहीं होती – समय की चोरी, कामचोरी, किसी को किये जाने वाले धन्यवाद की चोरी भी चोरी ही है), क्या हम में कोई है जिसने कभी किसी को धोखा न दिया हो। असल में हम सबने पाप किया है और समय बेसमय जब हम कुछ गलत करने चलते हैं तो हमारा अंतर्मन हमें चेताता है। हमारा विवेक ईश्वर का दिया हुआ वरदान है जो हमें पाप अर्थात ईश्वर की मर्ज़ी के विरुद्ध काम करने से रोकने की कोशिश करता है। हम अपने विवेक की नहीं सुनते परंतु अपने चंचल मन की सुनते है, पाप कर बैठते हैं और फिर अपने मन को तसल्ली देते हैं कि यह तो छोटा पाप है – हमने कोई हत्या थोड़ी की है, मैंने किसी की ज़मीन थोड़ी हड़प ली है, मैंने किसी को व्यवसाय में धोखा थोड़ी दिया है, मैंने कहाँ किसी महिला की आबरू लूटी है। मैंने जो किया यह तो बहुत छोटी बात है, सब ही तो करते हैं, मैं कोई निराला थोड़े ही हूँ – मैंने कोई बड़ा पाप तो नहीं किया – मैं तो साधारण सा सरल सा जीवन जीने वाला व्यक्ति हूँ – मैं तो किसी का न बुरा सोचता हूँ ना करता हूँ – अपने काम से काम रखता हूँ, ईश्वर को सुबह शाम याद करता हूँ। यह बात तो सही है कि ‘सभी तो करते हैं’ – परंतु इसके कारण सभी दोषी भी हैं, सभी पापी हैं। सब अगर गलत करते हैं तो ‘गलत’ सही तो नहीं बन जाता। हम कभी-कभी अपने आप को यह भी तसल्ली देते हैं कि जब सभी करते हैं तो देखा जायेगा, जो सबके साथ होगा वो मेरे साथ भी हो जायेगा। Continue Reading